भारतीय विद्यार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ करता स्कूली पाठ्यक्रम - GYAN OR JANKARI

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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

भारतीय विद्यार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ करता स्कूली पाठ्यक्रम

भारतीय विद्यार्थियों के भविष्य से खिलवाड़ करता स्कूली पाठ्यक्रम Indian  School  Syllabus in Hindi 


हम बच्चों को स्कूल इसलिए भेजते है ताकि बच्चे पढ़ लिख कर भविष्य में अच्छे और सफल इंसान बन सकें, अच्छा रोजगार प्राप्त कर सकें तथा जीवन में आने वाली मुश्किलों का सामना डटकर कर सकें, परन्तु कभी हमने यह सोचा है की भारत की स्कूलों में बच्चो को जो शिक्षा दी जाती है वह शिक्षा बच्चो के सर्वांगीण विकास के लिए कितनी उपयोगी है तथा वह शिक्षा बच्चो के लिए भविष्य में कितनी उपयोगी रहेगी।


भारत की स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम की किताबों में 75 % से अधिक ऐसी शिक्षा भरी हुई है जो बच्चो के जीवन में कभी कोई काम नहीं आती, ऐसी शिक्षा बच्चो पर एक बोझ के सामान होती है जिसको रटने में बच्चे न केवल अपना कीमती वर्तमान समय ख़राब कर रहे होते है, बल्कि उसके साथ साथ उनका भविष्य भी ख़राब हो रहा होता है, क्योकि यदि बच्चों को स्कूल में उन व्यर्थ की चीजों को रटाने के बजाये कुछ उपयोगी चीजें जैसे की हिंदी-इंग्लिश टाइपिंग, शॉर्टहैंड, Internet Uses, MS Word, Excel, Power Point, ब्लॉगिंग, एनीमेशन, स्पोर्ट्स, मनी मैनेजमेंट, फर्स्टएड, सीपीआर, आपातकाल के समय व्यवहार तथा  इनके जैसी अन्य उपयोगी चीजे सिखाई जाती तो इससे बच्चो का वर्तमान भी उपयोगी बनता तथा यह शिक्षा उनके लिए जीवन भर उपयोगी रहती, तथा उन्हें भविष्य में रोजगार का चयन करने तथा रोजगार प्राप्त करने में भी मदद करती। 


यदि हम हमारी स्कूलों के पाठ्यक्रम पर एक नजर डालें तो हमारी स्कूलों में मुख्यतः 5 विषय पढ़ाये जाते है जिनमें गणित, विज्ञानं, हिंदी, अंग्रेजी, और सामाजिक विज्ञानं प्रमुख है। यदि हम इन सभी विषयो के पाठ्यक्रम को देखें तो इनमे बहुत सी ऐसी चीजें हैं जो हमारे जीवन में कभी कोई काम नहीं आती और जिन्हें सिखने समझने में बच्चो का बहुत सा कीमती समय व्यर्थ हो जाता है। जैसे :-

अंग्रेजी (English)

किसी भी भाषा को सिखने का मुख्य उद्देश्य उस भाषा को समझना और उस भाषा में बातचीत करना होता है। भारत में लगभग सभी स्कूलों में अंग्रेजी एक मुख्य विषय के रूप में नर्सरी क्लास से ही पढाई जाती है, तथा एक विद्यार्थी को अपने सम्पूर्ण विद्यार्थी-जीवन में अंग्रेजी की पढाई करनी ही होती है। परन्तु लगभाग 12 से 15 वर्ष लगातार अंग्रेजी की पढाई करने के बावजूद 95% भारतीय विद्यार्थी अंग्रेजी में बातचीत नहीं कर पाते। इसका मुख्य कारन है भारत में अंग्रेजी पढ़ने का तरीका।

भारत मे अंग्रेजी पढ़ने के नाम पर केवल थ्योरी याद करवाई जाती है जिसके अंतर्गत बच्चो को Articles, Conjunctions, Models, Tense, Active Voice, Passive Voice, Indirect Speech, Etc., आदि याद कराये और रटाये जाते है, तथा दैनिक जीवन में अंग्रेजी में किस प्रकार बातचीत की जाती है इसकी कोई शिक्षा नहीं दी जाती, जिसके कारण भारतीय विद्यार्थी केवल थ्योरी में उलझ कर रह जातें है, और उनका अंग्रेजी सिखने का मूल उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो पाता।

जैसे-जैसे विद्यार्थी आगे की कक्षाओं में जाता है, उन्हें अंग्रेजी की ग्रामर का और अधिक कठिन स्वरूप पढ़ने को मिलता है, जिसके कारण भारतीय विद्यार्थी कभी अंग्रेजी में बातचीत करना सिख ही नहीं पाते, जबकि विदेशों में छोटे-छोटे बच्चे अंग्रेजी की ग्रामर रटे बिना आसानी से अंग्रेजी बोल लेते है क्योकि यह उनके दैनिक जीवन का हिस्सा होती है, इसलिए भारतीय विद्यार्थीयो को भी इस प्रकार अंग्रेजी पढ़ाने की जरुरत  है जिसमे अंग्रेजी की थ्योरी रटाने के स्थान पर दैनिक जीवन में अंग्रेजी में बातचीत करना सिखाया जाये। ताकि भारतीय विद्यार्थीयों का 12 - 15 साल का लम्बा समय जो उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने में लगाया है वो व्यर्थ न जाये और स्कूली शिक्षा के बाद वे इतने सक्षम हो सकें की वो आसानी से अंग्रेजी में बातचीत कर सकें।


हिंदी (Hindi)

हिंदी एक ऐसा विषय है जो उत्तर भारत के अधिकांश स्कूलों में एक मुख्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है, उत्तर भारत में जयादातर लोग हिंदी बोलते और समझते है, इसलिए स्कूलों में हिंदी में पढ़ना, लिखना और बोलना विद्यार्थियों के लिए आसान होता है। यदि बच्चो को अच्छी तरह से हिंदी की शिक्षा दी जाये तो कक्षा 6 तक के पाठ्यक्रम को पढ़कर विद्यार्थी हिंदी में बोलना, पढ़ना, लिखना आसानी से सीख जाते है, तथा उन्हें हिंदी के व्याकरण से सम्बंधित पर्याप्त बेसिक ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है, जो की विद्यार्थीयो के जीवन में उपयोगिता के लिहाज से पर्याप्त और आवश्यक होता है।
परन्तु कक्षा 6 के बाद आगे की कक्षाओं में केवल हिंदी की व्याकरण के कठिन स्वरूप को पढ़ाया जाता है, जो हर कक्षा के साथ और अधिक कठिन होता जाता है इसके आलावा विभिन्न कहानियां पढाई जाती है याद कराई जाती है तथा उन कहानियो से सम्बंधित प्रश्न परीक्षा में पूछे जाते है। इस प्रकार की कहानियो का हिंदी भाषा सिखने में कोई योगदान नहीं होता है, क्योकि हिंदी भाषा सिखने के बाद ही इस प्रकार की कहानियां याद की जा सकती है, इसके अलावा जो हिंदी की जटिल व्याकरण पढाई जाती है उसका जीवन में उपयोगिता के लिहाज से कोई महत्त्व नहीं होता वह जीवन में किसी काम नहीं आती इसलिए विद्यार्थी स्कुल छोडने के कुछ समय बाद ही उस जटिल व्याकरण को भूल जाते है, तथा विद्यार्थीयों का इसे सिखने में लगा समय व्यर्थ हो जाता है।

सामाजिक विज्ञान  (Social Science)

भारत में लगभग सभी स्कूलों में सामाजिक विज्ञान एक मुख्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। सामाजिक विज्ञानं के अंतर्गत भूगोल, इतिहास, तथा सामाजिक और राजनैतिक जीवन की शिक्षा दी जाती है। सामाजिक विज्ञान के द्वारा कक्षा 6 से कक्षा 7 तक के विद्यार्थियों को भूगोल, इतिहास, राजनितिक और सामाजिक जीवन के बारे में ऐसी सभी जानकारी प्राप्त हो चुकी होती है जो उनके जीवन के लिए उपयोगी और याद रखने योग्य होती है।

परन्तु कक्षा 7 और उसके बाद के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम को सिर्फ पिछली कक्षा से अधिक कठिन करने के लिए पाठ्यक्रम में अधिकतर ऐसे पाठ (Chapter) जोड़ दिए जाते है जिनका सामाजिक विज्ञानं विषय से कोई लेना देना नहीं होता तथा ऐसे पाठ (Chapter) उन सामान्य विद्यार्थियों के लिए अनुपयोगी होते है जिनकी किसी विशेष विषय में कोई रूचि नहीं है । ऐसे ही कुछ अनुपयोगी पाठ/चैप्टर जो सामाजिक विज्ञान के अंतर्गत पढ़ाये जाते है इस प्रकार है :-
जल संसाधन, भूमि संसाधन एवं कृषि, खनिज और ऊर्जा संसाधन,  विश्व की प्राचीन सभ्यताएं, विश्व के प्रमुख दर्शन, विश्वकी प्रमुख घटनाएं, औद्योगिक परिदृश्य, विकास की अवधारणा, बिमा एवं बैंकिंग, व्यवसाय एवं वाणिज्यिक क्रियाएं, पुस्तपालन-बहीखाता, विनिर्माण उद्योग, मानव संसाधन, आर्थिक अवधारणाएं एवं नियोजन, मुद्रा एवं वित्तीय समस्याएं, भारतीय अर्थव्यस्था के समक्ष चुनौतियां, भारतीय अर्थव्यस्था की विशेषताएं एवं नविन प्रवर्तियाँ आदि।

अतः ऐसे सभी पाठ (Chapter) जिनका सम्बन्ध अर्थशास्त्र से हो, खनिज और कृषि विज्ञानं से हो, या किसी विदेशी धरती से सम्बंधित हों यह सभी पाठ (Chapter) सामाजिक विज्ञान के एक सामान्य विद्यार्थी के लिए अरुचिकर, अनुपयोगी और जीवन में उपयोगिता के लिहाज से महत्वहीन होते है, जिनको पढ़ने और याद करने में एक विद्यार्थी का बहुत अधिक समय व्यर्थ ही नस्ट हो जाता है।

गणित (Maths)

गणित एक ऐसा विषय है जो भारत की सभी स्कूलों में मुख्य विषय रूप से पढ़ाया जाता है, यह एक कठिन विषय माना जाता इसको हर बच्चा अपनी बौद्धिक क्षमता और रूचि के अनुसार ही सिख और समझ पाता है, परन्तु भारत में इस विषय में पास होना हर बच्चे के लिए अनिवार्य होता है। जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी गणित एक अनिवार्य विषय नहीं है। भारत में कक्षा 6 तक के गणित पाठ्यक्रम में वो सभी चीजे सिखाई जा चुकी होती है जो एक विद्यार्थी के लिए सामान्य जीवन के लिहाज से उपयोगी होती है, परन्तु कक्षा 6 के बाद गणित के पाठ्यक्रम में ऐसी बहुत सी चीजे जोड़ दी जाती है जो स्कूल में सिखने के बाद जीवनभर कोई काम नहीं आती, इनमे से कुछ इस प्रकार है :-

बीजगणित Algebra 

गणित के अंतर्गत बीजगणित भी पढाई जाती है बीजगणित में सामान्य जीवन की समस्याओ को सुलझाने के लिए संख्याओं को X और Y के रूप में मानकर सही उत्तर प्राप्त करने की कोशिश की जाती है, बीजगणित के उपयोग से बच्चों में समस्याओ को सुलझाने की क्षमता बढ़ती है और बच्चो के मस्तिष्क का विकास भी होता है, शुरूआती कक्षाओं में जो बीजगणित पढाई जाती है वह व्यावहारिक जीवन के लिहाज से उपयोगी होती है, परन्तु जैसे जैसे बच्चे आगे की कक्षाओं में जाते है बीजगणित का स्वरुप विकृत होता जाता है वह सिर्फ अनुपयोगी फार्मूलों पर आधारित होती जाती है तथा उसका सामान्य जीवन के लिहाज से कोई उपयोग नहीं रह जाता, आगे की कक्षाओं में बीजगणित इतनी कठिन और विकृत हो जाती है जिसको सिखने और समझने में बहुत अधिक समय व्यर्थ होता है, ऐसी बीजगणित स्कूल के बाद सामान्य जीवन में कभी कोई काम नहीं आती जिसके कारन लगभग सभी विद्यार्थी स्कूल छोड़ने के कुछ समय बाद ही इसे भूल जाते है और उनका इसे सिखने में लगा समय व्यर्थ हो जाता है।

त्रिकोणमिति Trigonometry

त्रिकोणमिति गणित के अंतर्गत एक बहुत जटिल विषय माना जाता है शुरूआती त्रिकोणमिति में त्रिभुज की भुजाओ की गणना की जाती है जो समझने में आसान होती है और कुछ हद तक सामान्य जीवन के लिए उपयोगी भी होती है, परन्तु इसके बाद की त्रिकोणमिति हर चैप्टर के बाद और अधिक कठिन होती जाती है इस प्रकार की त्रिकोणमिति का उपयोग साइंटिस्ट और इंजीनियर जटिल गणनाओं के लिए करते है जैसे समुद्र की लहरों की गणना करना, साउंड और लाइट की तरंगो की गणना करना आदि अर्ताथ सामान्य जीवन में जटिल त्रिकोणमिति का कोई उपयोग नहीं होता है।

इस कारन वे विधार्थी जो गणित में औसत या कमजोर होते है उन्हें त्रिकोणमिति समझ नहीं आती और वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते है, और अपने आप को कमजोर समझने लगते है जबकि हम जानते है की हर बच्चे की रूचि और क्षमताएं अलग अलग होती है जरुरी नहीं की अगर कोई बच्चा गणित में कमजोर है तो वह किसी और क्षेत्र में अच्छा नहीं कर सकता। इसलिए गणित से त्रिकोणमिति जैसे कठिन और गैरजरुरी चैप्टर हटाकर सभी बच्चो को सामान अवसर दिए जा सकते है। इसके लिए बच्चो को 6th  क्लास से ही अपनी क्षमता के अनुसार पसंदीदा विषय चुनने की आजादी मिलनी चाहिए।


घात एवं घातांक 

घात एवं घातांक गणित के अंतर्गत पढ़ाया जाने वाला ऐसा विषय है जिसकी सामान्य जीवन में बहुत कम उपयोगिता है, किसी संख्या पर लगी घात का अर्थ होता है की वह संख्या स्वंय से कितनी बार गुना होगी, इससे अधिक किसी संख्या की घात का सामान्य जीवन में कोई अन्य उपयोग नहीं है, परन्तु भारतीय पाठ्यक्रम में घात का इतना अधिक कठिन और विकृत रूप पढ़ाया जाता है की इसको सिखने समझने में बच्चो का बहुत अधिक समय व्यर्थ चला जाता है, और यह शिक्षा उनके जीवन में कभी किसी काम नहीं आती।

घात का अनुपयोगी और विकृत स्वरुप 


वैदिक गणित 

वैदिक गणित अपने आप में एक पूरी गणित होती है, जिसके द्वारा सामान्य गणित की तरह ही समस्याएं हल की जा सकती है, इसलिए इसे सामान्य गणित के अंतर्गत पढ़ना गलत होता है, इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते है की किसी प्रश्न को हल करने के लिए सामान्य गणित और वैदिक गणित के तरीके अलग अलग होते है परन्तु दोनों विधियों से उत्तर एक ही आता है, किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना महत्वपूर्ण होता है न की प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने की दो अलग-अलग विधियाँ सीखना। इसलिए दोनों प्रकार की गणित विधियाँ एक साथ सीखाना किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता, इससे विद्यार्थीओ पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है।

वैदिक गणित और सामान्य गणित में जोड़, बाकि, गुना, भाग तथा अन्य समीकरणों को हल करने की अलग-अलग पद्धत्तियां है। कुछ पद्धत्तियां वैदिक गणित में सरल होती है तथा कुछ पद्धत्तियां सामान्य गणित में सरल होती है, इसलिए दोनों गणित की विधियों में से प्रश्न हल करने की आसान पद्धत्तियों को लेकर ऐसी गणित का विकास किया जा सकता है जो सभी विद्यार्थीओ के लिए समझने में आसान हो तथा जिससे दोनों प्रकार की गणित विधियों  की उपयोगिता बनी रहे।

अन्य 

इसी प्रकार भारतीय पाठ्यक्रम में गणित के अंतर्गत समान्तर श्रेढ़ी, संख्या पद्धति, बहुपद, गुणनखंड, ल.स.प. , म.स.प. , तथा कुछ अन्य ऐसे विषय पढ़ाये जाते है जिनकी उपयोगिता सामान्य जीवन के लिहाज से बहुत ही कम या न के बराबर होती है, ये सभी विषय शुरूआती कक्षाओं के बाद बहुत अधिक कठिन और उतने ही अनुपयोगी होते जाते है, तथा इनको सिखने और समझने में बच्चो का बहुत अधिक कीमती समय व्यर्थ हि नस्ट हो जाता है।

विज्ञान (Science)

विज्ञान भी उन मूल विषयो में से एक है जो भारतीय स्कूलों में पढ़ाये जाते है आज के इस युग में हर विद्यार्थी को विज्ञान पढ़ाये जाने की परम आवश्यकता है विज्ञान एकमात्र ऐसा विषय है जिसके पाठ्यक्रम में कोई अनुपयोगी पाठ (Chapter) नहीं पढ़ाया जाता है, परन्तु भारतीय शिक्षा व्यवस्था में विज्ञान को भी इतिहास तरह पढ़ाया जाता है, जिसमें थ्योरी पढ़ाने पर अधिक जोर दिया जाता है जबकि प्रैक्टिकल बहुत कम करवाया जाता है। इसलिए भारतीय शिक्षा व्यवस्था में प्रैक्टिकल को भी थ्योरी जितना ही महत्त्व देने की आवश्यकता है, जिससे विद्यार्थी किसी चीज को रटने के बजाये उसे सीख और समझ सकें।

यदि विद्यार्थीओ को किसी रासायनिक अभिक्रिया या प्रयोग की थ्योरी रटाने के बजाये उसे प्रैक्टिकल में प्रत्यक्ष सीखा दिया जाये तो वह प्रयोग विद्यार्थीओ को आसानी से समझ में आ जाता है, तथा उसे फिर याद करने और रटने की जरुरत नहीं रह जाती। इस प्रकार विद्यार्थीओ की विज्ञान में रूचि भी बनी रहती है तथा उन्हें सिखने में भी आसानी होती है।


कंप्यूटर साइंस (Computer Science)

कंप्यूटर साइंस एक ऐसा विषय है जिसकी वर्तमान युग में सर्वाधिक आवश्यकता है, भारत की ज्यादातर स्कूलों में यह विषय कक्षा 9 से पढ़ाना शुरू किया जाता है। भारतीय कंप्यूटर साइंस के स्कूली पाठ्यक्रम को देखकर लगता है की इसे 90 के दशक से आज तक बदला ही नहीं गया है। भारत में कंप्यूटर साइंस जैसे विषय को भी इतिहास की तरह पढ़ाया जाता है, जिसमें प्रैक्टिकल का नितांत आभाव होता है, तथा प्रैक्टिकल कराने के लिए ऐसे कंप्यूटर बच्चो को उपलब्ध कराये जाते है जिनका सॉफ्टवेयर दशकों पुराना हो चुका होता है। कंप्यूटर साइंस के पाठ्यक्रम में ऐसे सवाल जवाब याद कराये जाते है जिनको याद करने के बाद भी कोई विद्यार्थी इस विषय से सम्बंधित कुछ भी उपयोगी नहीं सिख पाता। ऐसे ही कुछ सावलो के उदाहरण इस प्रकार है :-
  • सर्वप्रथम स्थापित किये गए इंटरनेट नेटवर्क का नाम क्या था। 
  • इंटरनेट को नेटवर्कों का नेटवर्क क्यों कहा जाता है। 
  • वेब ब्राउज़र का क्या कार्य है। 
  • वर्ल्ड वाइड वेब पेज क्या है इसकी विशेषताएं लीखिए। 
  • इंटरनेट के इतिहास पर एक विस्तृत निबंध लिखिए। 
इस प्रकार के अनुपयोगी पाठ्यक्रम से भारत में कंप्यूटर साइंस की किताबें भरी जाती है, जिन्हे बच्चो को याद करना होता है तथा रटना होता है, पर ऐसी चीजों को याद करके यदि कोई विद्यार्थी शत-प्रतिशत नंबर भी ले आये तब भी उसे सिखने को कुछ नहीं मिलता और विद्यार्थी का इसे रटने में लगा समय व्यर्थ हो जाता है। इस प्रकार के पाठ्यक्रम को तुरंत बदलकर विद्यार्थीओं को अच्छे और आधुनिक कम्प्यूटर्स पर प्रैक्टिकल शिक्षा देने की आवश्यकता है, ताकि विद्यार्थी कंप्यूटर साइंस से समन्धित कुछ उपयोगी सिख सकें, और उनके कीमती समय का सदुपयोग हो सके। 

इस प्रकार हम देखते है की एक सामान्य विद्यार्थी कक्षा 6 पास करने तक लगभग वह संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुका होता है जिसकी उसे सामान्य जीवन में उपयोगिता के लिहाज से आवश्यकता होती है। यदि विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम से अनुपयोगी चीजें निकल दी जाएं तो बच्चो के पास बहुत सारा समय बच जायेगा, इस समय का उपयोग बच्चो को अलग अलग स्किल्स सीखाने में किया जा सकता है, इसलिए कक्षा 6 के बाद विद्यार्थीयों को अपनी पसंद के विषयो का चुनाव करने की आजादी मिलनी चाहिए, तथा हर स्कूल में बेसिक सब्जेक्ट पढ़ाने के बाद क्रिएटिविटी क्लासेज होने चाहिए जिसमे बच्चो को बचपन से ही अलग अलग स्किल्स सिखाई जा सके जो उन्हें भविष्य में रोजगार प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी। 

इसके अलावा स्कुल में विद्यार्थीयों को उनकी रूचि के अनुसार किसी भी एक एक्टिविटी जैसे स्पोर्ट्स, म्यूजिक, डांस, ड्राइंग, एक्टिंग आदि में हिस्सा लेना अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिससे विद्यार्थीयों में कलात्मक गुणों का विकास हो सकें और वे भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर इसे एक कैरियर के रूप में भी देख सकें।


भारतीय शिक्षा व्यवस्था और विकसित देशों की शिक्षा व्यवस्था की तुलना 

भारत में विद्यार्थियों के पास विषयों के चयन के लिए केवल तीन ही विकल्प होते है जो की साइंस, कॉमर्स और आर्ट्स है, तथा ये विकल्प भी विद्यार्थियों को कक्षा 10 के बाद ही मिल पाते है, जबकि विकसित देशो में बच्चो के पास विषयों के चयन के लिए एक लम्बी सूची होती है, तथा उन्हें छोटी उम्र से ही अपनी रूचि के अनुसार पसंद के विषय चुनने की पूरी आजादी होती है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में बच्चो को दशकों पुराना पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है, जिसमे अधिकतर चीजें ऐसी होती है जिनकी वर्तमान जीवन में कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है। जबकि विकसित देशों में समय के साथ पाठ्यक्रम को अपडेट किया जाता है, जिससे समय के साथ उसकी उपयोगिता बनी रहती है और बच्चे उस पाठ्यक्रम को पढ़कर अपने भविष्य का निर्माण करने के लिए मजबूत नींव रख पाते है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में किताबी ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया जाता है, जिसमें ज्यादातर थ्योरी पढाई जाती है और किताब में लिखा हुआ याद करने पर अधिक जोर दिया जाता है,  और प्रैक्टिकल न के बराबर होता है। जबकि विकसित देशों में प्रैक्टिकल पर अधिक जोर दिया जाता है जिससे बच्चो को सिखने में आसानी होती है, जिसके बाद किसी चीज को याद रखने की जरुरत नहीं होती।

भारत में बच्चों की केवल याद रखने की क्षमता को ही परखा जाता है तथा अन्य क्षमताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि विकसित देशो में विद्यार्थियों की हर प्रकार की क्षमताओं को विकसित करने के लिए उन्हें उचित शैक्षिक वातावरण प्रदान किया जाता है, वहां पर यदि कोई बच्चा पढाई में कमजोर है और किसी अन्य फील्ड में अच्छा है तो उसे कमजोर नहीं समझा जाता बल्कि उसे उसकी पसंदीदा फील्ड के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तथा उसका सहयोग किया जाता है।

अमेरिका जैसे देश में बच्चो को बहुत अधिक होमवर्क नहीं दिया जाता तथा वहां स्कूली पढाई के लिए कोई कोचिंग या टूशन नहीं होता है, जिससे बच्चो के पास खेलने या कोई अन्य काम करने या सिखने के लिए बहुत समय बच जाता है। अमेरिका के हाई स्कुल के बच्चो को कोई भी काम करने की पूरी आजादी होती है, वहाँ बच्चे पढाई के साथ-साथ कई छोटे-छोटे पार्ट टाइम जॉब भी करते है, जैसे रेस्टोटेन्ट में वेटर का काम करना, कार वाश करना, रिसेप्शन पर काम करना आदि इस प्रकार जॉब करने से बच्चो को पैसो का महत्त्व स्कूली जीवन से ही समझ आने लग जाता है, स्कूली जीवन से ही बच्चे आत्मनिर्भर होने की कोशिश करते है, वहां के बच्चे अपना स्कूली जीवन पूरा होते-होते कई तरह के छोटे छोटे बिजनेस करके सफलता और असफलता के अनुभव प्राप्त कर चुके होते है।
जबकि भारत की शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य केवल बच्चों को अनुपयोगी पाठ्यक्रम रटाना ही प्रतीत होता है, भारत में अत्यधिक होमवर्क और टूशन के कारण बच्चों के पास अपनी अन्य क्षमताओं के विकास के लिए समय ही नहीं बचता, जिसके कारण भारत के स्कूलों में पढ़ने वाले 12 वीं कक्षा तक के बच्चे इतने भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाते की वे किसी बैंक में जाकर कोई छोटा सा डीडी बनाने का फार्म भी भर सके या अपनी फीस जमा करा सकें, बल्कि ज्यादातर स्कूली बच्चे बैंक या अन्य किसी सरकारी कार्यालय में अपने स्कूली जीवन में तो कभी नहीं जाते, तथा उन्हें इस प्रकार के सार्वजानिक कामकाज का कोई अनुभव नहीं होता है।

स्कुल और माता पिता का व्यवहार 

भारतीय विद्यार्थीओ में प्रतिभा की कमी नहीं है, परन्तु उन्हें स्कूलों में इस प्रकार का वातावरण ही नहीं मिल पाता की उनके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो सके। हर बच्चे के क्षमताएं अलग अलग होती है, कोई अच्छा याद रख सकता है, कोई अच्छा बोल सकता है या अच्छा गा सकता है , कोई स्पोर्ट्स में अच्छा होता है, कोई एक्टिंग में अच्छा होता है, कोई अच्छा डांस कर सकता है, किसी को विज्ञानं में रूचि होती है, किसी को गणित जल्दी समझ में आती है परन्तु भारत की शिक्षा व्यस्था में  केवल बच्चो की याद रखने की क्षमता को ही परखा जाता है और महत्त्व दिया जाता है, इस कारण बच्चों की अन्य क्षमताओं की कभी पहचान तक नहीं हो पाती। भारत की शिक्षा व्यवस्था भारतीय बच्चो का बचपन भी उनसे छीन रही है, आजकल के स्कूलों में बच्चो को इतना अधिक होमवर्क दिया जाता है की बच्चे खेलना कूदना भी भूल गए है।

आजकल बच्चो के माता पिता भी किताबी ज्ञान और नम्बर को इतना अधिक महत्त्व देते है, की वे बच्चो पर पढाई का दबाव समझने के बजाये उन्हें स्कूल से घर आने के बाद अच्छे नंबर लाने के लिए टूशन भेज देते है, जिससे बच्चो को पुरे दिन खेलने तक का भी समय नहीं मिल पाता, जिससे बच्चो के स्वस्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है, बच्चे छोटी उम्र में ही मोटे होने लग जाते है, जिससे आजकल के छोटे-छोटे बच्चो में भी डायबिटीज़ और ह्रदय सम्बंधित बीमारियां होने लगी है, इसके अलावा बच्चो पर पढाई का और अच्छे नंबर लाने का इतना अधिक दबाव होता है, की कई बच्चे तो अवसाद में चले जाते है, बच्चो को मानसिक बीमारियाँ लग जाती है, बचपन में ही ऐसे घातक बीमारियां लग जाने के कारन बच्चा जीवन भर इन बीमारियों से जूझता रहता है। अपना बचपन खोकर इतना सब करने के बाद भी बच्चो को ऐसी शिक्षा मिलती है, जो उनके भविष्य में उनके किसी काम नहीं आती तो फिर ऐसी शिक्षा का क्या फायदा।

निष्कर्ष 

इसलिए हर एक स्टूडेंट, पैरेंट और टीचर को आवाज उठाने की जरुरत है, जिससे इस अनुपयोगी पाठ्यक्रम को बदला जा सके और बच्चो को ऐसी शिक्षा मिल सके जो न केवल बच्चो के सफल और सुरक्षित जीवन के लिए उपयोगी हो बल्कि उस शिक्षा में बच्चो के स्वास्थ्य और उनकी प्रतिभा को भी उतना ही महत्त्व मिले जितना महत्त्व पढाई को दिया जाता है।  

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