कबीरदास जी के प्रारंभिक जीवन की कहानी Kabir Das ji Ki Kahani - GYAN OR JANKARI

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मंगलवार, 29 मार्च 2022

कबीरदास जी के प्रारंभिक जीवन की कहानी Kabir Das ji Ki Kahani

कबीरदास जी के प्रारंभिक जीवन की कहानी Kabir Das ji Ki Kahani

Kabir Das ji Ki Kahani

श्री कबीरदास जी का परिचय

श्री कबीरदास जी का प्राकट्य सन 1398 ई को वाराणसी शहर में हुआ था, कबीरदास जी भक्तिकाल के प्रमुख संतों में से एक थे। इन्होने अपने जीवन में समाज से भेदभाव, जातिप्रथा और अन्य कुरीतियों हटाने का प्रयास किया। कबीरदास जी हमेशा राम नाम का जाप किया करते थे, इन्होने अपने जीवन में कई बार भगवान के साक्षात् दर्शन प्राप्त किये। इनकी भक्ति का प्रभाव ऐसा था की उस समय के काशी नरेश और दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोधी इनके शिष्य हुआ करते थे। इन्होने अपने जीवन में ऐसे कई चमत्कार दिखाए जो अविश्वसनीय लगते है। कबीर दास जी को श्री प्रहलाद जी का अवतार माना जाता है, जिनकी रक्षा भगवान श्री नरसिंह ने की थी। उनके जीवन काल में ऐसे कई अवसर आये जिनसे लोगो को यह महसूस हुआ की भगवान नरसिंह स्वयं उनकी रक्षा कर रहें है। श्री कबीरदास जी एक उच्च कोटि संत और कवि थे, उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों छंदो की रचना की, उनके कई छंदो को सिख धर्म के ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में भी स्थान दिया गया है। कबीरदास जी के बारे में कहा जाता है की इनका न तो जन्म हुआ था और ना ही इनकी मृत्यु हुई थी, श्री कबीरदास जी फूलों से प्रकट हुए थे और अंत में उनका शरीर फूलों में परिवर्तित हो गया था।

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कबीरदास जी के प्रारंभिक जीवन की कहानी

काशी में एक ब्राह्मण रहते थे, वे भगवान श्री रामानंदाचार्य जी के शिष्य थे, वे प्रतिदिन श्री रामानंदाचार्य जी की सेवा में जाते थे। श्री रामानंदाचार्य जी पंचगंगा घाट पर विराजते थे तथा प्रतिदिन शालिग्राम सेवा किया करते थे, वे ब्राह्मण उनकी पूजा के लिए रोज तुलसीपत्र और फूल लेकर जाते थे। एक दिन उन दिन ब्राह्मण का स्वास्थ्य ख़राब हो गया, उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी की गुरूजी को जाकर फूल दे आएं। उन ब्राह्मण की एक पुत्री थी जो बाल विधवा थी, ब्राह्मण ने अपनी उस पुत्री को श्री रामानंदाचार्य जी को पूजा के फूल पहुंचने के लिए भेजा और कहा बेटी! गुरूजी पूजा के लिए पुष्पों का इंतजार कर रहें होंगे इसलिए तुम शीघ्रता से जाकर उन्हें पुष्प दे आओ। वह बेटी उसी समय पुष्प लेकर गुरूजी की सेवा में पहुंची।

श्री रामानंदाचार्य जी हमेशा परदे में रहते थे, वे सबसे नहीं मिलते थे, विमुखो का दर्शन नहीं करते थे। वो बेटी उनके पास पुष्प लेकर पहुंची और जय श्री सीता राम कहकर उसने गुरूजी को प्रणाम किया और उन्हें पुष्प दे दिए। गुरूजी ने पूछा बेटी तुम कौन हो, पंडितजी नहीं आये पुष्प लेकर। बेटी ने कहा पिताजी नहीं आये आज उनका स्वास्थ्य ख़राब है, इसलिए आज उनके स्थान पर मैं पुष्प लेकर आयीं हूँ, आप पुष्प स्वीकार कीजिये और मुझे आशीर्वाद प्रदान कीजिए। श्री रामानंदाचार्य जी ने पुष्प स्वीकार किये और आशीर्वाद के रूप में उन्होंने कुछ प्रसादी पुष्प उस बेटी को देना चाहा। जैसे ही रामानंदाचार्य जी ने पुष्प देने के लिए हाथ आगे बढ़ाया उस बेटी ने पुष्प ग्रहण करने के लिए अपनी झोली फैला ली। श्री रामानंदाचार्य जी ने उसकी झोली पुष्प डालते हुए आशीर्वाद दिया 'पुत्रवती भव'।

जैसे ही श्री रामानंदाचार्य जी ने उस बेटी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया, वह घबरा गयी, रामानंदाचार्य जी ने पूछा बेटी क्या हुआ। तब उसने हाथ जोड़कर कहा गुरूजी यह आपने किसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया, आपके मुख से निकला हुआ कोई शब्द असत्य नहीं होता, मैं तो एक बाल विधवा हूँ और अपने पिता के घर रहती हूँ। अब इस आशीर्वाद का समाधान किस प्रकार हो पायेगा। श्री रामानंदाचार्य जी बोले बेटी यह आशीर्वाद भगवद इच्छा से निकला है, अब जो होना था सो हो गया, अब तुम इस प्रसाद को लेकर जाओ, तुम्हारे यहाँ पुत्र का जन्म भी हो जायेगा और तुम्हे कोई दोष भी नहीं लगेगा। यह सुनकर वह लड़की उन फूलों को उस झोली में लेकर चली गयी।

वह लड़की मार्ग में फूलों की उस झोली को लेकर जा रही थी, मार्ग में उसे लगा की यह झोली भारी होती जा रही है। जैसे ही उसने उस झोली को खोला उसने देखा की उस झोली में फूलों के स्थान पर एक छोटा सा बालक लेटा था। यह देखकर वह लड़की बहुत घबरा गयी, उसने सोचा अब मैं क्या करूँ, इस बालक को कहाँ ले जाऊं। यदि मैं इसे घर ले जाती हूँ, तो लोग क्या कहेंगे, मैं किस-किस को प्रमाण दूंगी, की यह गुरूजी का आशीर्वाद है, इससे मेरी और मेरे पिताजी की बहुत बदनामी होगी। यह विचार करके उसने सोचा यह बालक जिनका प्रसाद वही इसकी रक्षा भी करेंगें, ऐसा सोचकर वह लड़की काशी में स्थित लहरताला तालाब के किनारे उस बालक को छोड़ कर अपने घर चली गयी।

अब वह बालक कमल के फूलों से भरे उस तालाब के निकट खेल रहा था। वहाँ से कई लोग गुजरे परन्तु किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया, तभी वहां से एक मुस्लिम दंपत्ति गुजर रहे थे। पेशे से वे लोग जुलाहा थे, आदमी का नाम नूर अली था जबकि उनकी पत्नी का नाम नीमा जान था। उन दोनों पति-पत्नी के कोई संतान नहीं थी, वे दोनों हमेशा खुदा से एक औलाद की कामना किया करते थे। नीमा जान को उस बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी, जैसे ही उसने तालाब की तरफ देखा उसे वह बच्चा तालाब के किनारे खेलता हुआ दिखाई दिया। नीमा जान उस बालक को देखकर मोहित हो गयी, और अपने पति से कहने लगी देखो उस बच्चे को कितना सुन्दर बच्चा है। नूरअली ने भी उस बच्चे को देखा, नीमा जान उस बालक को देखकर वात्सल्य रस से भर गयी, और अपने पति से कहने लगी हम रोज अल्ला से एक औलाद की दुआ करते है, यदि आप कहें तो मैं इस बच्चे को घर ले चलूँ, मैं इसे अपनी औलाद की तरह पालूंगी। नूरअली ने सब तरफ देखा और उस बच्चे के माँ-बाप की खोज की परन्तु उसे कहीं कोई नहीं मिला। अब उस बालक को लावारिस जानकर वे दोनों उसे उठाकर अपने घर ले आये।

अब वह बालक एक जुलाहे के घर पहुंच चुका था, उस मुस्लिम दंपत्ति ने अपने धर्म के अनुसार बड़ी धूमधाम से उस बालक का जन्मदिन मनाया। जब उस बालक के नामकरण का समय आया तब मौलवियों को बुलाया गया, उन्होंने कहा तुन्हे अल्लाह के करम से ही यह औलाद मिली है, इसलिए अल्लाह के नाम पर ही इस बच्चे का नाम रखो, तब उस बच्चे का नाम कबीर अली रखा गया। अब वह बालक उनके घर में पहुंच तो गया था, परन्तु वह कुछ खाता पीता नहीं था, अब उसके माँ बाप बहुत परेशान हो रहे थे, की कैसे उस बच्चे को कुछ खिलाया जाये कैसे उसको दूध पिलाया जाये। परन्तु वह बच्चा कुछ खाता पीता नहीं था। तब एक फकीर को बुलाया गया और उनसे इस बारे में कोई उपाय पूछा गया। वो एक पहुंचे हुए फकीर थे, उन्होंने ध्यान करके बताया की यह बालक परमात्मा की विभूति है, इसलिए यह सामान्य वस्तु को ग्रहण नहीं करेगा, इसके लिए किसी ब्राह्मण के घर से गाय का दूध मंगवाइये यह बालक उसी को ग्रहण करेगा।

नूरअली के घर के पास ही एक कर्मा नाम की ब्राह्मणी रहती थी उसके पास गाय भी थी। अब नूरअली और नीमा जान दोनों उस ब्राह्मणी के घर गए और उससे गाय के दूध के लिए प्रार्थना करि। अब वो ब्राह्मणी गाय के दूध का भगवान को भोग लगाकर प्रसादी दूध उस बालक के लिए लेकर आयी, बालक ने उस प्रसादी दूध को ग्रहण कर लिया। अब उस बालक कबीर के लिए ब्राह्मणी के घर से ही गाय का प्रसादी दूध लाया जाता था, वह उसी को ग्रहण करता था। धीरे-धीरे उस बालक का विकास होने लगा, माता-पिता नीमा जान और नूरअली उस बालक को देखकर बहुत खुश हुआ करते थे।

समय के साथ बालक कबीर बड़ा होने लगा, बचपन से ही उनमे भक्ति के संस्कार थे, वे कभी भी अपनी उम्र के बालको के साथ नहीं खेलते थे, वे बचपन से ही एकांत में बैठकर राम-राम जपा करते थे। पहले तो उनके माँ-बाप समझ ही नहीं पाए की यह क्या बोलता है, पर जब उन्होंने ध्यान से सुना तब उन्हें पता चला की अरे यह तो राम-राम बोलता है। तब कबीरदास जी को उनके माँ-बाप समझाने लगे की बेटा हम लोग हिन्दू नहीं है, हमारे यहाँ यह नाम नहीं लिया जाता इसलिए तू राम-राम मत बोला कर। परन्तु कबीरदास जी ने राम-राम जपना नहीं छोड़ा वे हमेशा राम-राम जपा करते थे।

कबीरदास जी जब कुछ और बड़े हुए तब उनके पिता नूरअली ने उन्हें मदरसे में पढ़ने भेजा। मदरसे में उन्हें उर्दू और इस्लाम की शिक्षा दी जाने लगी, परन्तु कबीरदास जी को यह सब पढ़ने में कोई रूचि नहीं थी। वे मदरसे में भी राम का नाम लिया करते थे। मदरसे के मौलवी ने बहुत प्रयास किया की कबीर को इस्लाम का ज्ञान दिया जाये परन्तु कबीरदासजी अपनी धुन में मगन रहते थे और राम-राम करते थे, एक दिन कबीरदास जी ने मदरसे की सभी दीवारों पर राम राम लिख दिया, सब तरफ राम ही राम लिखा हुआ दिख रहा था। तब मदरसे का मौलवी कबीरदास जी को उनके घर छोड़ गया और बोला इस बच्चे को हम कुछ नहीं पढ़ा सकते यह हमेशा राम का नाम लेता रहता है, इसे देखकर दूसरे बच्चे भी राम-राम करने लगे है, इसलिए आज के बाद इसे पढ़ने के लिए इसे हमारे यहाँ मत भेजना। नूरअली ने मौलवी को बहुत समझाया परन्तु मौलवी नहीं माने। इसके बाद नूरअली ने कबीरदास जी को किसी दूसरे मदरसे भर्ती करवाया, परन्तु वहां भी कबीरदास जी ने कुछ नहीं पढ़ा, वे हमेशा राम का नाम जपा करते थे। कबीरदास जी कहते थे की राम नाम में सभी शास्त्रों का ज्ञान है, इसलिए मुझे कहीं पर भी कुछ भी पढ़ने की जरुरत नहीं है, मेरे लिए तो बस राम का नाम ही काफी है।

नूरअली कबीरदास जी को मदरसे में पढ़ाना चाहते थे, लेकिन सभी मदरसों ने उन्हें पढ़ाने से मना कर दिया। अंत में कबीरदास जी की माँ नीमा जान ने कहा अगर यह नहीं पढता तो इसे कुछ काम में लगाओ। अब नूरअली जो स्वयं जुलाहा थे वे कबीरदास जी को अपने साथ कपडा बुनने का काम सिखाने लगे। अब कबीरदासजी कपडा बुनने का काम सिखने लगे, वे काम सिखते समय भी राम का नाम लिया करते थे। सब कुछ सामान्य चल रहा था कबीरदास जी भी अब किशोर हो गए थे। वे कपडा बुनते और राम का नाम लेते रहते थे, परन्तु उन्हें हमेशा अपने मन में कुछ कमी खलती रहती थी वे हमेशा यह सोचते थे की इस जीवन का उद्देश्य केवल काम करना, खाना-पीना और सो जाना ही है, क्या इससे बेहतर कोई उद्देश्य जीवन का नहीं हो सकता। ऐसा सोच-सोच कर कबीरदास जी व्याकुल रहने लगे।

एक दिन कबीरदास जी की माँ घर में हाथ की चक्की पर गेहूं पीस रही थी, चक्की को देखकर कबीरदास जी रोने लगे। माँ ने पूछा बेटा क्यों रोता है, कबीरदास जी बोले माँ इस चक्की के दोनों पाटों के बिच में जो भी गेहूं के दाने आते है वे सभी पीस जाते है। इस चक्की को देखकर मुझे ऐसा लगता है जैसे यह धरती और यह नीला आसमान चक्की के दो पाट हैं और हम सब लोग गेहूं दाने के दाने हैं, जो इस चक्की में पिसे जा रहें है। माँ क्या हम भी इन सब गेहूं के दानो की तरह एक दिन पीस जायेंगे। तब कबीरदास की माँ ने बेटे को सांत्वना देते हुए कहा, यह सही है की इस चक्की में में गेहूं के सभी दाने पिस जाते है लेकिन बेटा इस चक्की के बिच में एक कीला है, इस कीले के साथ जो भी दाना लग जाता है वह कभी नहीं पिसता। कबीरदास जी ने पास में आकर देखा, उन्होंने देखा की चक्की के बिच वाले कीले पर जो दाने थे वे सभी साबुत थे, यह देखकर कबीरदास जी खुश हो गए, और बोले माँ हमें भी ऐसे ही किसी सहारे की जरुरत है जिसकी शरण में जाकर हम इन दो पाटों के बिच पिसे जाने से बच सकते है।

अब कबीरदास जी हमेशा यह सोचते रहते थे की मुझे किसकी शरण में जाना चाहिए जिससे मेरा इस जीवन में उद्धार हो सके। भगवत प्रेरणा ने कबीरदास जी को विचार आया की किसी योग्य गुरु की शरण में जाने पर ही इस जीवन का उद्धार संभव है। अब कबीरदास जी हमेशा भगवान से प्रार्थना करने लगे की हे प्रभु मुझे किसी गुरु की शरण दिला दो। इसी भाव को लेकर कबीरदास जी राम नाम का जाप करते रहते थे। एक दिन कबीरदास जी सुबह समय घर की छत पर बैठे हुए राम नाम जप रहे थे, उसी समय आकाशवाणी हुई की हे कबीर उठो और जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य जी को अपना गुरु बनाओ। तब कबीरदास जी ने आकाशवाणी से पूछा हे प्रभु जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य जी तो विमुखो और हम यवनों का मुख भी नहीं देखते, तो फिर मैं कैसे उन्हें अपना गुरु बना सकता हूँ। तब आकाशवाणी ने फिर कहा तुम सुबह ब्रह्म मुहूर्त के अँधेरे में तिलक और कंठी धारण करके पंचगंगा घाट पर लेट जाना, उस समय जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य जी घाट पर गंगा स्नान करने आते है, जब तुम उनके मार्ग में लेटे रहोगे तो उनके चरण तुम्हारे शरीर को स्पर्श करेगें, उस समय उनके मुख से जो भी निकले उसे ही तुम गुरु मंत्र मान कर स्वीकार कर लेना, यह कहकर आकाशवाणी शांत हो गयी।

उसी दिन कबीरदास जी कंठी और धोती लेकर आये, उन्हें अगले दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में पंचगंगा घाट पर जाना था, परन्तु कबीरदास जी गुरु से मिलने के लिए बड़े व्याकुल थे उन्होंने सोचा अगर अगले दिन सुबह इतनी जल्दी नींद नहीं खुली तो गुरूजी से मिलना नहीं हो पायेगा। इसलिए कबीरदास जी उसी दिन रात को ही कंठी, तिलक और धोती धारण करके पंचगंगा घाट पर जाकर लेट गए और गुरूजी के आने का इंतजार करने लगे। अगले दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में श्री रामानंदाचार्य जी घाट पर स्नान करने आये। उनके मार्ग में कबीरदास जी मुँह के बल घाट की सीढ़ियों पर लेटे थे। अँधेरे में श्री रामानंदाचार्य जी का पैर कबीरदास जी की पीठ पर पड़ा। अचानक पीठ पर पैर पड़ते ही कबीरदास जी की चीख निकल गयी। श्री रामानंदाचार्य जी अँधेरे में देख भी नहीं पाए की उन्होंने किसके ऊपर पैर रखा है, चीख सुनते ही श्री रामानंदाचार्य जी के मुख से निकला बेटा राम-राम बोल, गुरूजी के मुख यह सुनते ही कबीरदासजी खुशी से झूम उठे, वे उस स्थान से उठकर तुरंत अपने घर की तरफ दौड़ पड़े, वे मार्ग में सभी से कहते जा रहे आज मुझे श्री रामानंदाचार्य जी ने अपना शिष्य बना लिया, कबीरदास जी का हृदय आनंद से भर गया था।

जब वे घर पहुंचे तब तक उनके माता-पिता उठ चुके थे, कबीरदास जी को देखकर उनकी माँ नीमा जान चौंक गयी और बोली अरे तूने यह कंठी तिलक और धोती क्यों पहन रखी है कहाँ जाकर आया है तू। कबीरदास जी बोले मैं पंचगंगा घाट पर गया था, वहाँ पर मैंने जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य जी से दीक्षा ग्रहण कर ली है। उनके आदेश के अनुसार आज से मैं कंठी तिलक धारण करके राम का नाम लिया करूँगा। यह सुनकर कबीरदास जी के माता-पिता बहुत क्रोधित हुए, बोले हमारे खानदान में आजतक किसी ने राम का नाम नहीं लिया तो तू क्यों ले रहा है, यह सब करना छोड़ दे। कबीरदास जी बोले नहीं माँ राम का नाम मेरी सांसो में बस गया है अब मैं इसे नहीं छोड़ सकता।

उस दिन के बाद से कबीरदास जी हर समय कंठी और तिलक धारण करके रहने लगे। बाजार में जब वे कपडा बेचने जाते तो सब लोग उनको देखकर आश्चर्य करते की यह जुलाहा कब से कंठी तिलक धारण करने लगा। तब कबीरदास जी बड़ी प्रसन्नता से सभी को बताते की मैंने जगद्गुरु श्री रामानंदाचार्य जी महाराज से दीक्षा ली है अब मैं उनका शिष्य बन गया हूँ। यह सुन कर लोग बड़े आश्चर्य में पड़ गए, वे बोले श्री रामानंदाचार्य जी महाराज तो यवनों का मुख तक नहीं देखते उन्होंने तुम्हे अपना शिष्य कब बना लिया, कब तुम्हारी दीक्षा हुई। कबीरदास जी बोले मेरी दीक्षा हुई है साँच को आंच नहीं, मेरे पास प्रमाण है, मुझे कहीं भी परीक्षा देने के लिए बुला लो, मैं आपको प्रमाण देने के लिए तैयार हूँ।

यह सुनकर सभी लोग बड़े अचंबित हुए, तब कुछ लोग श्री रामानंदाचार्य जी के पास पहुंचे और उन्हें सब बात बताई, वे बोले महाराज काशी में एक कबीर नाम का यवन जुलाहा रहता है, वह तिलक लगता है, कंठी पहनता है और उसने चोटी भी रख ली है। वो कहता है की आपने उसको दीक्षा दी है, और वो आपको अपना गुरु बताता है। अंतर्यामी श्री रामानंदाचार्य जी महाराज सब कुछ जानते थे, परन्तु लोक शिक्षा हेतु वे बोले हमने तो किसी यवन को दीक्षा नहीं दी, उसको यहाँ लेकर आओ उससे मिलना चाहते है। अब श्री रामानंदाचार्य जी के कुछ शिष्य कबीरदास जी के पास आकर बोले आपको गुरुदेव बुला रहें है। कबीरदास जी उनके साथ चल पड़े, वे मन में बार-बार सोच रहे थे की गुरुदेव उन्हें हृदय से लगाएंगे या यवन कहकर ठुकरा देंगें, जो भी हो मैंने तो उन्हें अपना गुरु मान लिया है मैं हृदय से उनका हूँ और उनका ही रहूँगा।

श्री रामानंदाचार्य जी हमेशा परदे में रहते थे, कबीरदास जी को उनके पास ले जाया गया। श्री रामानंदाचार्य जी ने परदे में से ही कबीरदास जी से पूछा क्या नाम है तुम्हारा, क्या करते हो और कहाँ रहते हो, तुम्हारी दीक्षा कैसे हुई और तुम्हारे गुरुदेव का नाम क्या है। कबीरदास जी ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया की मेरा नाम कबीर है, मैं यहीं काशी नगरी में ही निवास करता हूँ, मैं एक जुलाहा हूँ और कपडे बुनने का काम करता हूँ। कुछ दिन पहले आप ही ने मुझे दीक्षा दी है। मुझे आकाशवाणी ने आदेश दिया था की मैं सुबह के समय पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेट जाऊँ। उस दिन सुबह के समय ब्रह्म मुहूर्त में मैं पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर लेटा था, तब आपके चरण मेरी पीठ पर पड़े थे, तब आपने अपने श्री मुख से मुझे आदेश दिया था की बेटा राम-राम बोल। तभी से मैंने आपके श्री मुख से निकले राम नाम को गुरु मंत्र मान लिया है। बताइये क्या मैंने कुछ गलत किया, क्या राम नाम समस्त ग्रंथो का सार नहीं है।

कबीरदास जी के मुख से यह बात सुनकर श्री रामानंदाचार्य जी ने परदा हटा दिया और कबीरदास जी को अपने हृदय से लगा लिया और कहा तुम ही मेरे सच्चे शिष्य हो, तुमने ही राम नाम की महिमा को पहचाना है। इसके बाद श्री रामानंदाचार्य जी ने घोषणा कर दी की मैं कबीरदास का गुरु हूँ और कबीरदास जी मेरे शिष्य हैं। इसके बाद श्री रामानंदाचार्य जी ने कबीरदास जी को विधिवत दीक्षा प्रदान की और राम नाम का मंत्र प्रदान किया और भजन करने की विधि बताई। इसके बाद सब तरफ कबीरदास जी और श्री रामानंदाचार्य जी की जय-जयकार होने लगी।

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