जब भगवान श्री राम कबीरदास जी का रूप धरकर आये Kabirdas ji ki kahani Part 3
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जब भगवान श्री राम ने कबीरदास जी की बेहिसाब संपत्ति प्रदान की तो कबीरदास जी ने वह सारी संपत्ति काशी के गरीबों को लुटा दी, अब कबीरदास जी के पस उस संपत्ति में से कुछ भी शेष नहीं रह गया था। जब काशी के पंडे-पुजारियों को यह बात पता चली की कबीरदास जी दोनों हाथों से गरीबों को धन लुटा रहें है, तब वे लोग एकत्रित होकर कबीरदास जी के पास पहुंचे। कबीरदास जी ने देखा की कशी के ब्राह्मण लोग आएं है, तो उन्होंने सबको प्रणाम किया। तब पुजारी बोले कबीरदास जी सुना है आप बहुत धनवान हो गए है और आप गरीबों को बहुत सारा दान दे रहें है। क्या आपने काशी के ब्राह्मणों को दान का अधिकारी नहीं समझा, किसी भी दान पर सबसे पहला अधिकार ब्राह्मणों का ही होता है। आपने ना जाने किस-किस जाती के लोगों लोगों को दान दे दिया, परन्तु हम ब्राह्मणों को कोई दान नहीं दिया। कबीरदास जी बोले मैं तो एक गरीब जुलाहा हूँ, मेरे पास इतना धन कहाँ, परन्तु मेरे रघुनाथ जी बहुत धनवान हैं, यह सब उन्हीं की कृपा है। रघुनाथ जी ने कृपा करके मुझे इतनी संपत्ति प्रदान की और उनकी प्रसन्नता के लिए मैंने वह सारी संपत्ति उन्हीं के लोगों में बाँट दी। मैंने दान करते समय किसी की जाती नहीं पूछी मेरे लिए तो सभी लोग एक समान है क्योंकि साधु की जाती को पूछना एक अपराध है, मैं तो यह मानता हूँ "जात पात पूछै नहीं कोई, हरी को भजे सो हरी का होई"
ब्राह्मण बोले अच्छी बात है, अब आपने जिस प्रकार सभी को दान दिया उसी प्रकार हम ब्राह्मणों को भी दान दीजिये। कबीरदास जी बोले, मैं आपको दान अवश्य दे देता परन्तु मैंने तो अपनी सारी संपत्ति गरीबों को दान कर दी है, अब तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, आप चाहें तो मेरे घर के भीतर जाकर देख सकते है। तब ब्राह्मण बोले हम कुछ नहीं जानते आपने जिस प्रकार अन्य लोगों को दान दिया, उसी प्रकार आपको हमें भी दान देना होगा, अन्यथा हम यहीं पर अनशन पर बैठ जायेंगें और आपको भी कहीं नहीं जाने देंगे। कबीरदास जी ने ब्राह्मणों को बहुत समझाया की अब मेरे पास धन नहीं है परन्तु ब्राह्मण नहीं माने वे कबीरदास जी के घर पर अनशन पर बैठ गए। अंत में कबीरदास जी ने ब्राह्मणों से पीछा छुड़ाने के लिए ब्राह्मणों से कहा, ठीक है मैं आप लोगों को भी धन दूंगा, धन लाने के लिए मुझे पुनः उन्हीं केशव बंजारा के पास जाना होगा, जिन्होंने मुझे पहले धन दिया था। मैं यहाँ से जाऊंगा तभी तो कुछ ला पाउँगा, इसलिए आप लोग मुझे यहाँ से जाने दीजिये। ब्राह्मणों ने सोचा बात तो ठीक है यहाँ से जायेंगे तभी तो कुछ लेकर आएंगे। यह सोचकर उन्होंने कबीरदास जी को घर से जाने दिया और वहीं बैठकर कबीरदास जी की प्रतीक्षा करने लगे।
कबीरदास जी को उन पंडे-पुजारियों से पीछा छुड़ाने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया, कबीर जी वहां से निकल कर पुनः गंगा किनारे स्थित जंगल में और अधिक गहराई में जाकर छिप गए, कबीर जी ने सोचा की मेरे पास तो इन ब्राह्मणों को देने के लिए कुछ है नहीं, रामजी सबको देते है, इन ब्राह्मणों को भी वे ही देंगे। यह सोचकर कबीरदास जी उस एकांत स्थान पर बैठकर राम नाम जपने लगे। कबीर जी जंगल में राम नाम जप रहे थे और उनके घर पर बैठे पंडा-पुजारी उनका इंतजार कर रहे थे, सुबह से शाम हो गयी परन्तु कबीरदास जी घर नहीं लौटे। घर पर बैठे उन पुजारियों को लगने लगा की कहीं कबीरदास चकमा देकर तो नहीं चले गए, उनमें से कुछ लोग कबीरदास जी को भला-बुरा कहने लगे।
अब साकेत धाम में भगवान श्री राम पुनः कबीरदास जी के लिए चिंतित हो गए, भगवान ने सोचा अगर कबीरदास जी की मदद नहीं की गयी तो ब्राह्मणों को दिया गया उनका आश्वाशन झूठा हो जायेगा जिससे काशी में उनकी बहुत बदनामी होगी। इसलिए भगवान श्री राम इस बार स्वयं कबीर का रूप बनाकर आये, इस बार भगवान एक हजारों बैलगाड़ियों पर सामान लादकर लाये थे। ब्राह्मणों ने भगवान श्री राम को दूर से ही कबीरदास जी के भेष में आते हुए देख लिया, उन्होंने देखा कबीरदास जी इस बार हजारों बैलगाड़ियों पर कीमती सामान लाद कर चले आ रहें है, कबीरदास जी को आता देख ब्राह्मणों ने दूर से ही कबीरदास जी की जय-जयकार करना शुरू कर दिया। घर पहुंचकर कबीरदास जी के भेष में आये हुए भगवान ने सभी ब्राह्मणों को प्रणाम किया, ब्राह्मणों ने भी कबीरदास जी को खूब आशीर्वाद दिए। इसके बाद कबीरदास जी ने सभी ब्राह्मणों को दान देना शुरू किया, प्रत्येक ब्राह्मण को कई किलो अनाज, घी-तेल, दालें, रेशमी वस्त्र और उपर से पांच-पांच स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान की। कबीरदास जी के रूप में आये हुए भगवान श्री राम ने ब्राह्मणों के साथ-साथ काशी के सभी लोगों को उपहार प्रदान किया। काशी का कोई नागरिक अछूता नहीं रहा, भगवान ने सभी को दोनों हाथों से धन लुटाया, कबीरदास जी के द्वारा धन बाँटने का यह कार्यक्रम दो-तीन दिनों तक चला, उस समय काशी नगरी में कोई भी गरीब नहीं रह गया था, कबीरदास जी ने सभी को अन्न, वस्र और धन बांटकर धनवान बना दिया था। इससे पूरी काशी नगरी में कबीरदास जी की जय-जयकार हो गयी।
अब भगवान श्री राम ने सोचा की अब सभी ब्राह्मणों को दान दिया जा चुका है, परन्तु कबीरदास जी तो वहाँ वन में अकेले बैठे है, और पता नहीं इन ब्राह्मणों के डर से कितने दिनों तक वे वहाँ भूखे प्यासे बैठे रहेंगें, इसलिए अब कबीरदास जी को वापस बुला लाना चाहिये। यह विचार करके भगवान ने एक ब्राह्मण का भेष बनाया और उस स्थान की तरफ चल पड़े जहाँ कबीरदास जी छिपे थे। उधर वन में कबीरदास जी ने अपनी तरफ एक ब्राह्मण को आता देखा। उन्होंने सोचा यह ब्राह्मण जरूर मेरी ही खोज में इस ओर आ रहें है। कबीरदास जी ने स्वयं को और अधिक घनी झाड़ियों में छिपा लिया, परन्तु ब्राह्मण के रूप में भगवान तो सब जानते थे की कबीरदास जी कहाँ छिपे है, वे उस झाड़ी के पास आकर खड़े हो गए और बोले अरे! यह झाड़ी के पीछे कौन छिपा है, कबीरदास जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। भगवान बोले अरे यहाँ छिपकर क्या कर रहे हो भईया, जाओ वहाँ कबीरदास जी घर, वहां कबीरदास जी सभी लोगों को अन्न-वस्त्र और पाँच-पाँच स्वर्ण मुद्राएँ बाँट रहें हैं, तुम भी जाकर ले लो। यह कहकर भगवान आगे चले गए। कबीरदास जी ने सोचा यह ब्राह्मण क्या कह रहें है, मैं तो यहाँ बैठा हूँ तो फिर मेरे घर पर यह सब सामग्री कौन बाँट रहा है, क्या यह ब्राह्मण सच कह रहें है।
कबीरदास जी सोचा की अब तो घर चलकर ही देखना चाहिए की वहाँ पर क्या हो रहा है, यह विचार करके कबीरदास जी उन झाड़ियों से निकलकर अपने घर की तरफ चल पड़े। कबीरदास जी गमछे से अपने मुँह को छिपाये हुए मार्ग में बढ़ते जा रहे थे, मार्ग में उन्होंने देखा सब तरफ कबीरदास जी के ही चर्चे हो रहे थे, सभी लोग उनकी तारीफ कर रहे थे, यह सब सुनकर कबीरदास जी को बहुत आश्चर्य हो रहा था। कबीरदास जी अपने घर पहुंचे। घर पहुंचने पर कबीरदास जी की माँ बोली बेटा तू सुबह से कहाँ चला गया था। कबीरदास जी बोले माँ मैं सुबह से नहीं तीन दिनों बाद घर आया हूँ। माँ बोली क्यों मजाक करता है बेटा तीन दिनों से तो तू यहीं पर है, और नगर वासियों को अन्न-धन बाँट रहा है। कबीरदास जी बोले माँ मैं सच कह रहा हूँ, मैं तो उन ब्राह्मणों को बहला कर यहाँ से चला गया था और तीन दिनों से गंगा के उस पार जंगल में छिपा हुआ था और आज तीन दिनों बाद लौटा हूँ। माँ बोली बेटा मेरे सामने तो तू तीन दिनों से यहीं पर था, तू इतना सारा धन लेकर आया था, और तू ही तो तीन दिनों ने ब्राह्मणों और नगरवासियों को धन बाँट रहा है। अब कबीरदास जी को समझते देर नहीं लगी की उनके रूप में भगवान श्री राम आये थे, और नगरवासियों को यह सब सामग्री बाँट रहे थे। कबीरदास जी बोले माँ मैं सच कह रहा हूँ मैं तो तीन दिनों से जंगल में छिपा हुआ था, माँ मैं समझ गया मेरे रूप में मेरे रघुनाथ ही आये थे, और नगरवासियों को धन बाँट रहे थे। कबीरदास जी बोले माँ मैं कितना अभागा हूँ, मेरे रघुनाथ मेरे पीछे से हमारे घर आये और मैं उनके दर्शन भी नहीं कर सका, मेरे कारण मेरे रघुनाथ को कितना कष्ट उठाना पड़ा। यह कहकर कबीरदास जी फुट-फुटकर रोने लगे।
अब पुरे काशी नगर में कबीरदास जी की एक संत के रूप में प्रतिष्ठा हो गयी, लोग सोचते थे वैसे तो कबीरदास जी गरीबी में जीवन यापन करते हैं, परन्तु जब दान करने को आते है, तो पुरे नगर को धन लुटा देते है, पता नहीं इतना सब कुछ वे कहाँ से और कैसे लेकर आते है। अब सभी लोग कबीरदास जी को एक चमत्कारी संत मानने लगे, और दूर-दूर से उनके भक्त उनके दर्शनों लिए आने लगे।
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